पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/१५४

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दिलीपकुमार राय . अब तो रेखा अचल चट्टान की भाति मेरे सामने अड गई है। उसकी सारी भावुकता, कोमलता, प्रेम जमकर वर्फ का ग्लेशियर बन गया है- दुरूह-दुर्गम और असह्य, सख्त । वह ज़िद ठान बैठी है कि मैं उसे विवाह की स्वीकृति दे दू, और दत्त के आने पर वह सव-कुछ उससे कह दे, और तलाक देने पर दत्त को मजबूर करे। फिर हम व्याह करके पति-पत्नी का शान्त जीवन व्यतीत करे । बेचारी गरीब नहीं समझती कि अब उसके और मेरे लिए पति-पत्नी का शान्त जीवन व्यतीत करना कितना कठिन है, लगभग असम्भव है अव वह एक पवित्र, अछूती, विवाह-वय के योग्य अवोध कन्या नही है, पर-स्त्री है, एक प्रतिष्ठित और एकनिष्ठ पति की विवाहिता पत्नी है, जिसका समाज मे एक स्थान है। इसके अतिरिक्त वह एक पुत्र की मा है । और इधर मैं ढलती उम्र का एक लम्पट व्यक्ति हू। सचमुच मै लम्पट तो है ही। कितनी ही कुलवधुप्रो और कुमारिकाओ का शील मैंने भग किया है, पवित्रता नष्ट की है, विलास किया है, झूठे झासे दिए है । आत्मभोग को मैंने प्रधानता दी है। स्त्री को भोग-सामग्री समझा है। विवाहिता पत्नी तो मेरी थी माया-बडी योग्य और निष्ठा- वान् पत्नी थी । उसे मैंने खो जाने दिया। चुपचाप नही, अपनी सब इज्जत- आवरू के साथ। अब तो अदालत ने भी मेरे चरित्र पर दुश्चरियता की मुहर लगा दी। अब सम्भ्रान्त परिवार के लोग अन्तरग रूप मे अपने घर मे मेरा स्वागत करते कतराते है। सम्भ्रान्त महिलाए मुझसे मिलने से बचना चाहती है। कुछ प्रौढाए मुझे कौतूहल से देखती हैं । माया के सम्बन्ध