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पत्थर-युग के दो बुत
 

१४६ पत्थर-युग के दो बुत नता को वहा तक खीच ले जाता है जहा तक किसी की समकक्ष स्वाधीनता से वह टकरा न जाए। यह एक प्रकार से मनुष्य के कार्यों पर नियन्त्रण है । और समाज के सभी प्रश्न इसी नियन्त्रण मे समा जाते हैं। इसे जिस समाज ने जितना अग्राह्य माना है उतना ही उसने स्त्री के अधिकारो तथा स्वतन्त्रता का अपहरण किया है। परन्तु सभ्य मनुष्य की स्वस्थ और शुभ वुद्धि स्त्री को जो अधिकार देती है, वही मानव-समाज की ठीक नीति है । उसी से मनुष्य का कल्याण होगा। स्त्री अबला है, पुरुष सवल है । पर वह उदार और स्नेहमयी अधिक है। अब जब तक पुरुप यह समझता है कि स्त्री पुरुप की सम्पत्ति है, उसकी भोग्य-वस्तु है, तब तक आज भी नारी से उसका कोई समझौता नही हो सकता। पाश्चात्त्य देशो मे ऐसा है कि जब तक वे स्त्री और पुरुप तन-मन से स्वाभाविक बन्धन मे नही वध जाते, कानूनी वधन मे नही वधते। जव स्वाभाविक बन्धन ही न रहेगा, तव कानूनी या सामाजिक या धार्मिक चाहे भी नाम उसे दीजिए, वह बधन सफल नही हो सकता, न उसे समाज के लिए श्रेयस्कर समझा जा सकता है। अाज हमारे देश ने भी तलाक म्वीकार कर लिया है। मैं कभी भी उसके पक्ष मे नही थी, पर स्वय इस स्थिति मे आ पहुची ह कि तलाक मेरे लिए अनिवार्य हो गया है। इस समय तलाक के सुभीते बढ गए है। इससे यह सम्भावना विकसित हुई है कि जिस समय एक-पत्नी-विवाह की प्रथा का विकास हो रहा था, उस समय कानून के द्वारा पुरुष और स्त्री को मिलाकर एक करना विवाह का एक अंग मान लिया गया, जो वास्तव मे एक प्रकार का सौदा या। अव प्रेम के द्वारा दोनो का मिलकर एक होना महत्ता नहीं रखता। कानून के द्वारा मिलकर एक होना ही अधिक महत्त्व- पूर्ण है। परन्तु यह व्यवस्था देर तक न चल सकेगी और कानून के द्वारा स्त्री-पुरुष के मिलने की अपेक्षा प्रेम के द्वारा मिलना ही अधिक उपयुक्त प्रमाणित होगा , और स्त्री-पुरुप के सयोग मे उच्च कोटि की भावनायो अथवा विचारो का अधिकाधिक ममावेश होगा। और तब समाज यह भी