पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/१३४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१३०
पत्थर-युग के दो बुत
 

१३० पत्यर-युग के दो वुत 7 "पर रेखा, यह तो सोचो, यह कैसे हो सकता है । मैं एक प्रतिष्ठित सरकारी नौकर है । ऐसा करूगा तो नौकरी तो खत्म ही हुई समझो । पर तुम्हारे लिए मै इतना बलिदान सह सकता हू। खुशी से। पर बेबी है। तुम्हारा भी लडका है। इन्हें कैसे छोडा जाएगा ? फिर हम जाएगे भी कहा ? क्या हम लोग ऐसे नगण्य है कि जहा जाए वहीं छिप जाए ? रेखा, तुम्हारा यह प्रस्ताव अमल मे नहीं लाया जा सकता है।" "तो फिर पहली बात ही रहे।" "तलाक और व्याह वाली?" "हा।" "उस पर हम विचार कर सकते है। परन्तु तुम अभी दत्त की मनो- वृत्ति का अध्ययन करो। उसके मन की थाह लो। अपने प्रति उसके मन मे घृणा पैदा करो। तभी शायद इस काम में सफलता मिलेगी।" "मैं तो उनसे घृणा करती है। कह चुकी हू। अव उनके मन में कैसे घृणा उत्पन्न करू?" - "मैं सोचूगा और तुम्हे राह बताऊगा। तुम घवरामो मत। सब ठीक हो जाएगा।" परन्तु वह मेरे वक्ष पर गिरकर फफक-फफककर रोने लगी । उसने कहा, "हाय, मैं कही की न रही ' किस कुक्षण मे मैंने अपना मान डिगाया, अपना शील भग किया, अपनी कुल-लाज डुवोई । मुझे तो अव मर जाना ही चाहिए। फिर मैं जान ही दे दूगी, तुम यदि मुझे सहारा न दोगे। मुझे इस तरह गिराकर तुम दूर खडे नहीं रह सकते । मुझे सहारा देना होगा। मेरे साथ मरना होगा। अब मेरी इज्ज़त तो गई। जव यह वात, मेरी ज़िन्दगी का यह काला काम-पत्नी होकर परपुरुष के सम्पर्क की बात जव मेरी जान-पहचानवाली औरते सुनेगी तो क्या कहेगी? कैसे मैं उन्हे मुंह दिखाऊगी । कहो तो सही।" इतना कहते-कहते वह मेरी गोद मे गिर गई। मुझसे उस बदनसीव को ढाढस देते न वना।