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पत्थर-युग के दो बुत
११
 

पत्थर-युग के दो वुन ११ जानती थी। क्या होगा, यह भी नहीं जानती थी। पर ज्यो-ज्यो चीज़े मै खरीदती जाती थी, मेरा दिल उमग मे हिलोरे लेता जाता था। मैंने एक आसमानी रग की नाडी भी खरीदी । बहुत माथापच्ची करनी पड़ी मुझे। न जाने उनको पसन्द पाएगी भी या नहीं। मैंने तो अब अपना आपा ही खो दिया था-उन्ही की ग्राख से अपने को देखती थी। साडिया पमद ही नही आ रही थी। अन्त मे बहुत-बहुत हिचकिचाहट के बाद एक साडी खरीदी और एक मफलर लिया उनके लिए भी। चपरासी से मैंने बहुत सलाह-मशवरा किया। वेचारा बूढा ब्राह्मण था। और सव नौकर-चाकर आफिसवाले मुझे 'मेम साहब' कहते थे, पर यह बुढा ब्राह्मण मुझे 'माजी' कहकर पुकारता या । वडा भला लगता था मुझे इसके मुह से माजी सुनना। मुझे याद ग्राता या-पिता के घर का व्ढा नोकर रामू, जो मुझे 'विटिया रानी' कहकर पुकारता था। मैने घर के वडे-बूढे की भाति इस ब्राह्मण सेवक से सूब सलाह-मशवरा करके एक-एक चीज़ खरीदी थी। कौन चीज़ साहब को पमन्द होगी-इम पर मैं इन ब्ढे चपरासी की राय को एकदम महत्त्व देती रही । वहुत-सी नामग्री खरीदकर मै लौटी। वडी धूमधाम रही रात को। बडे-बडे अादमी पाए। एक गायक ने सगीत-गान किया । हँसी-मज़ाक, चुहल-खाना पीना खूब हुा । स्त्रिया भी आई, पुरुप भी पाए । सवसे मेरा परिचय हुा । नमस्कार का ग्रादान- प्रदान हुग्रा । ग्रानन्द का एक नया-निराला सामूहिक रूप मैने देखा। धीरे-धीरे सब लोग जाने लगे। हँस-हँसकर वधाइया देते जाते थे, सव सम्भ्रान्त पुरुष-स्त्री मुझे बहुत भले लग रहे थे । वर्थ-डे का यह त्योहार मेरे मानस-पटल पर घर कर गया। सव चले गए—पर उनके कुछ अतरग मिन भीतर के कमरे में अभी जमे बैठे थे। वहा उनका 'डिक' चल रहा था। इस ड्रिंक से मैं पहले अपरिचित थी। दाराव वे पीते ये-यह मै जान तो गई थी, पर शराव कैसे पी जाती है, यह न जानती थी। घर मे वे शराब नहीं पीते थे। वहुन दिन वाद पता चला कि विवाह से प्रथम पीते थे- विवाह के बाद घर मे वन्द कर दिया था क्लब में जाकर पीते थे, इन