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पत्थर-युग के दो बुत
१०३
 

पत्यर-युग के दो बुत १०३ का अर्थ है-स्त्री-पुरुप का जन्म-जन्मान्तरो के लिए एक-दूसरे से अट्ट सम्बन्ध ।" जन्म-जन्मान्तरो की बात सुनकर दत्त को हमी का गई। पर यह उसकी वह चिर-प्रसिद्ध हँसी न थी जिममे ठहाको के मात्र प्रानन्द विवग्ता था। यह तो एक स्खी-सूखी हँसी थी। उसने हंसकर कहा, "जन्म-जन्मातर की बात पीछे छोडो राय, इसी जन्म मे निभाव हो जाए तो गनीमत है।" मेरे कुछ कहने के प्रथम ही उमने कुछ गम्भीर होकर कहा, "मारा ही की बात ले लो। वह न कोई नई-नवेली स्त्री है, न वे समझ है । बडी TE. शिष्ट औरत है वह, पर उसे हो क्या गया, जो वह 27 तरह च ती T" "इसका में इसके अतिरिक्त और क्या कारण पता तारा याधुनिका है -पुरानी हिन्दू-परम्परा को नहीं माननी।" "पुरानी हिन्दू-परम्परा क्या ?" "मैने कहा न कि हिन्दू-धर्मानुशासन की दृष्टि ने यो पार विवाहित होकर जीवन-भर पति से विच्छेद नहीं पर नती। यही । वह पति के मरने पर भी उसकी विधवा रहगी यार वह विकास की कि जव उसकी मृत्यु होगी तो स्वग या पतिलोक मे वहीं पनि नि, जो जन्म-जन्मान्तरो ते उसका पति होता पाया है।" इस वार दत्त को हँसी नहीं आई। उसने तनिस मार हारा "तुम भी क्या इस न्टी बात पर विश्वास करते हो तर मैने हॅमकर कहा, मैं तो स्ली। नहीं नलिन - 7. अविश्वास करने से क्या होता हे मला । पर यह मान न न कर सी को यदि ऐसा ही विग्यान रहे लोन ने पनन्द । "कशे पनन्द ारोगे तुम नटी वान सो'