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पत्थर-युग के दो बुत
 

पत्थर-गुग के दो वुन कता का अनुभव करती है वह दत्त से उमे प्राप्त नहीं हुई। दत्त इम सम्बन्ध मे अनाडी और असावधान व्यक्ति हे। वह प्रेम को केवल मन का और महवाम को शरीर का विषय मानता है। जैसे वह प्रेम मे परिपूर्ण है, मे ही मेक्म-पूनि मे भी त्रुटिरहित है। पर वह प्रेम और काम के सतुलन को ठीक न बनाए रख सका जिससे रेखा का रतिभार भग हो गया । उममें विरक्ति का अकुर जग पाया। मैंने उसे देखा और ठीक ममय पर उसे रतिदान दिया और उसे जीत लिया। अब वह मेरी है। विवाह एक प्रात्मिक सम्बन्ध हे नीर शारीरिक भी। वाहिक जीवन की मार्थकता तभी हे जर शारीरिक सम्बन्ध मात्मिक सम्बन्ध में परिणत हो जाए। मी पुरुप का एर पति-पत्नी का साहचर्य तभी पूरा हो सकता है। परन्तु दन-जसे पडे-तिले मन दम मर्म की बात को नहीं जानते। विवाह के बीत जाने पर भी रेखा और दत्त का शरीर-सम्बना पात्मिा मम्बान का हप चारण न कर मका। रेवा उनके लिए छटपटाती रही और दन ने उपर ध्यान ही नहीं दिया। वास्तव में उमे इस महत्व पोवारमा ज्ञान ही नहीं है। वह अपने को एकनिष्ठ पोर कर्तव्यपरायग पति तो ममनना है पर उसने रंगा को अपना समपंगा तक एक बार नहीं किया। नहीं तो क्या रामा-मी पविती मेरे हाय या मरूनी वी? यह नो मुझे एक प्रजन्य लान हुआ, कंचन दत्त की माता के कारण । परन्तु अकेला दन ही प्रेमा नहीं है। हजारो, लाग्यो, मरोडा पनि प्रेमी म होते है पीर प्रानी मूल्यवान् मणि को गाटते ।। पुत्पो हो की नाति कुछ स्त्रिया नी मुढ होती है। प्रपो प्राप्त को नहीं जानती, प्रौर ममन्नी है जिसपना भरीर पुरण पाद दहा पर तरह का अ य ह । तन म उन्हें गरा-मा म्पर्श-मुग भी प्राप्त हो जाता है। पर वही गोडे ही स्त्री या प्राप्नत्य ? जी दारे गृय पनि गरी नुव-मुविधा लिए दो से परत है, यह भी काम के मुग निकर डालती है, दसमे नी हो उतनी ही 4 माल हो। तितनी वर में दुनर कामा ने। उनी ने उने दम काम प्रनिवि और