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२६२] [पञ्चतन्त्र


मन्थरक ने फिर भी पत्नी से सलाह किये बिना कुछ भी न करने का विचार प्रकट किया। घर पहुँचकर वह पत्नी से बोला—"आज मुझे एक देव मिला है। वह एक वरदान देने को उद्यत है। नाई की सलाह है कि राज्य माँग लिया जाय। तू बता कि कौन सी चीज़ माँगी जाये।"

पत्नी ने उत्तर दिया—"राज्य-शासन का काम बहुत कष्ट-प्रद है। सन्धि-विग्रह आदि से ही राजा को अवकाश नहीं मिलता। राजमुकुट प्रायः कांटों का ताज़ होता है। ऐसे राज्य से क्या अभिप्राय जो सुख न दे।"

मन्थरक ने कहा—"प्रिये! तुम्हारी बात सच है, राजा राम को और राजा नल को भी राज्य-प्राप्ति के बाद कोई सुख नहीं मिला था। हमें भी कैसे मिल सकता है? किन्तु प्रश्न यह है कि राज्य न माँगा जाय तो क्या माँगा जाये।

मन्थरक पत्नी ने उत्तर दिया—"तुम अकेले दो हाथों से जितना कपड़ा बुनते हो, उससे भी हमारा व्यय पूरा हो जाता है। यदि तुम्हारे हाथ दो की जगह चार हों और सिर भी एक की जगह दो हों तो कितना अच्छा हो। तब हमारे पास आज की अपेक्षा दुगना कपड़ा हो जायगा। इससे समाज में हमारा मान बढ़ेगा।"

मन्थरक को पत्नी की बात जच गई। समुद्रतट पर जाकर वह देव से बोला—"यदि आप वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दो कि मैं चार हाथ और दो सिर वाला हो जाऊँ।"