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लब्धप्रणाशम्] [१९१

दुविधा में डाल दिया। दूसरे दिन वह बहुत दुःखी दिल से बन्दर के पास गया। बन्दर ने पूछा–"मित्र! आज हँसकर बात नहीं करते, चेहरा कुम्हलाया हुआ है, क्या कारण है इसका?"

मगरमच्छ ने कहा—"मित्रवर! आज तेरी भाबी ने मुझे बहुत बुरा-भला कहा। वह कहने लगी कि तुम बड़े निर्मोही हो, अपने मित्र को घर लाकर उसका सत्कार भी नहीं करते; इस कृतघ्नता के पाप से तुम्हारा परलोक में भी छुटकारा नहीं होगा।"

बन्दर बड़े ध्यान से मगरमच्छ की बात सुनता रहा।

मगरमच्छ कहता गया—"मित्र! मेरी पत्नी आज आग्रह किया है कि मैं उसके देवर को लेकर आऊँ। तुम्हारी भाबी ने तुम्हारे सत्कार के लिये अपने घर को रत्नों कीबन्दनवार से सजाया है। वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।"

बन्दर ने कहा—"मित्रवर! मैं तो जाने को तैयार हूँ, किन्तु मैं तो भूमि पर ही चलना जानता हूँ, जल पर नहीं; कैसे जाऊँगा?"

मगरमच्छ—"तुम मेरी पीठ पर चढ़ जाओ, मैं तुम्हें सकुशल घर पहुंचा दूंगा।"

बन्दर मगरमच्छ की पीठ पर चढ़ गया। दोनों जब झील के बीचोंबीच अगाध पानी में पहुँचे तो बन्दर ने कहा—"ज़रा धीमे चलो मित्र! मैं तो पानी की लहरों से बिल्कुल भींग गया हूँ। मुझे सर्दी लगती है।"