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१७०] [पञ्चतन्त्र

कर अपने पर्वतीय दुर्ग की ओर कूच कर दिया। दुर्ग के पास पहुँच कर स्थिरजीवी ने उलूकराज से निवेदन किया—"महाराज! मुझ पर इतनी कृपा क्यों करते हो? मैं इस योग्य नहीं हूँ। अच्छा हो, आप मुझे जलती हुई आग में डाल दें।"

उलूकराज ने कहा—"ऐसा क्यों कहते हो?"

स्थिरजीवी—"स्वामी! आग में जलकर मेरे पापों का प्रायश्चित्त हो जायगा। मैं चाहता हूँ कि मेरा वायसत्व आग में नष्ट हो जाय और मुझ में उलूकत्व आ जाय, तभी मैं उस पापी मेघवर्ण से बदला ले सकूँगा।"

रक्ताक्ष स्थिरजीवी की इस पाखंडभरी चालों को खूब समझ रहा था। उसने कहा—"स्थिरजीवी! तू बड़ा चतुर और कुटिल है। मैं जानता हूँ कि उल्लू बनकर भी तू कौवों का ही हित सोचेगा। तुझे भी उसी चुहिया के तरह अपने वंश से प्रेम है, जिसने सूर्य, चन्द्र, वायु, पर्वत आदि वरों को छोड़कर एक चूहे का ही वरण किया था।

मन्त्रियों ने रक्ताक्ष से पूछा—"वह किस तरह?"

रक्ताक्ष ने तब चुहिया के स्वयंवर की यह कथा सुनाई—