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९.
शत्रु का शत्रु मित्र

शत्रवोऽपि हितायैव विवदन्तः परस्परम्


परस्पर लड़ने वाले शत्रु भी हितकर होते हैं

एक गाँव में द्रोण नाम का ब्राह्मण रहता था। भिक्षा माँग कर उसकी जीविका चलती थी। सर्दी-गर्मी रोकने के लिये उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। एक बार किसी यजमान ने ब्राह्मण पर दया करके उसे बैलों की जोड़ी दे दी। ब्राह्मण ने उनका भरन-पोषण बड़े यत्न से किया। आस-पास से घी-तेल-अनाज माँगकर भी उन बैलों को भरपेट खिलाता रहा। इससे दोनों बैल खूप मोटे ताज़े हो गये। उन्हें देखकर एक चोर के मन में लालच आ गया। उसने चोरी करके दोनों बैलों को भगा लेजाने का निश्चय कर लिया। इस निश्चय के साथ जब वह अपने गाँव से चला तो रास्ते में उसे लंबे लंबे दांतों, लाल आँखों, सूखे बालों और उभरी हुई नाक वाला एक भयङ्कर आदमी मिला।

उसे देखकर चोर ने डरते-डरते पूछा—"तुम कौन हो?"

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