पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/१६५

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

 

८.
शरणागत के लिये आत्मोत्सर्ग

'प्राणैरपि त्वया नित्यं संरक्ष्यः शरणागतः'


शरणागत शत्रु का अतिथि के समान
सत्कार करो, प्राण देकर भी उसकी तृप्ति करो।

एक जगह एक लोभी और निर्दय व्याध रहता था। पक्षियों को मारकर खाना ही उसका काम था। इस भयङ्कर काम के कारण उसके प्रियजनों ने भी उसका त्याग कर दिया था। तब से वह अकेला ही, हाथ में जाल और लाठी लेकर जङ्गलों में पक्षियों के शिकार के लिये घूमा करता था।

एक दिन उसके जाल में एक कबूतरी फँस गई। उसे लेकर जब वह अपनी कुटिया की ओर चला तो आकाश बादलों से घिर गया। मूसलाधार वर्षा होने लगी। सर्दी से ठिठुर कर व्याध आश्रय की खोज करने लगा। थोड़ी दूरी पर एक पीपल का वृक्ष था। उसके खोल में घुसते हुए उसने कहा—"यहाँ जो भी रहता है, मैं उसकी शरण जाता हूँ। इस समय जो मेरी सहायता करेगा उसका जन्मभर ऋणी रहूँगा।"

(१६०)