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मित्रसम्प्राप्ति]
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मुझे वैराग्य हो गया है। और इसीलिये मैं लघुपतनक की पीठ पर चढ़कर यहाँ आ गया हूँ।"

मन्थरक ने उसे आश्वासन देते हुए कहा—

"मित्र! नष्ट हुए धन की चिन्ता न करो। जवानी और धन का उपभोग क्षणिक ही होता है। पहले धन के अर्जन में दुःख है; फिर उसके संरक्षण में दुःख। जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय करता है उसके शतांश कष्टों से भी यदि वह धर्म का संचय करे तो उसे मोक्ष मिल जाय। विदेश-प्रवास का भी दुःख मत करो। व्यवसायी के लिये कोई स्थान दूर नहीं, विद्वान् के लिये कोई विदेश नहीं और प्रियवादी के लिये कोई पराया नहीं।"

"इसके अतिरिक्त धन कमाना तो भाग्य की बात है। भाग्य न हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है। अभागा आदमी अर्थोपार्जन करके भी उसका भोग नहीं कर पाता; जैसे मूर्ख सोमिलक नहीं कर पाया था।"

हिरण्यक ने पूछा—"कैसे?"

मन्थरक ने तब सोमिलक की यह कथा सुनाई—