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नैषध-चरित-चर्चा
कर्णात्प्रसूनाशुगपञ्चवाणी
वाणीमिषेणास्य मनोविवेश ।
(सर्ग ८, श्लोक ५०)
भावार्थ—इस प्रकार शहद के समान मधुर रस बरसाने- वाली दमयंती के ओष्टरूपी बंधूक-पुष्प के धनुष से निकली हुई, पुष्पशायक (काम) की पंचवाणी (पंचबाणावली), वाणी के बहाने, कर्ण द्वारा, नल के हृदय में प्रवेश कर गई । काम-बाणों से नल का अंतःकरण छिद गया-यह भाव ।
यह पद्य बहुत ही सरस है। इसका उत्तर नल ने क्या दिया, सो भी सुन लीजिए—
हरिपतीनां सदसः प्रतीहि
स्वदीयमेवातिथिमागतं माम् ;
वहन्तमन्तर्गुरुणादरेण
प्राणानिव स्वप्रभुवाचकानि ।
(सर्ग ८, श्लोक ५५)
भावार्थ—अपने स्वामिवर्ग के संदेश को प्राणों के समान अंतःकरण में बड़े आदर से धारण करके दिक्पाल-देवतों की सभा से मैं तुम्हारा ही अतिथि होने आया हूँ।
विरम्यतां भूतवती सपर्य्या
निविश्यतामासनमुज्झितं किम् ?
या दूतता नः फलिनी विधेया
सैवातिथेयी पृथुरुद्भवित्री।
(सर्ग ८, श्लोक ५६)