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श्रीहर्ष की कविता के नमूने
कस्यासि धन्यस्य गृहातिथिस्स्व-
मलीकसम्भावनयाथवालम् ।
(सर्ग ८, श्लोक ४८)
भावार्थ—संदेह की दोला का अवलंब करके, मैं नहीं जानती, कितने कितने प्रकार की कल्पनाएँ मेरी बुद्धि कर रही है । अच्छा, बहुत हुआ। अब इस प्रकार की संभावनाओं से कोई लाभ नहीं । आप ही कृपा-पूर्वक स्पष्ट कहिए कि किस धन्य के आप अतिथि होने आए हैं।
प्राप्तैव तावत् तव रूपसृष्टं
निपीय दृष्टिजनुषः फलं मे;
अपि श्रुती नामृतमाद्रियेतां
तयोःप्रसादीकुरुषे गिरञ्चेत् ।
(सर्ग ८, श्लोक ४६)
भावार्थ—आपके इस अप्रतिम रूप को देखकर मेरी दृष्टि तो अपने जन्म का फल पा चुकी । अब आप ऐसी कृपा कीजिए, जिससे मेरी कर्णेद्रिय भी आपका वचनामृत पान करके कृतार्थ हो जाय।
इस प्रकार नल के प्रति दमयंती के कथन को सुनाकर श्रीहर्ष जी कहते हैं—
इत्थं मधूत्थं रसमुगिरन्ती
तदोष्ठबन्धूकधनुर्विसृष्टा ।