दोनो अर्थ निकलते हैं । श्रीहर्षजी की श्लेष-रचना का भी यह अच्छा उदाहरण है।
समालोचकों ने बहुत ठीक कहा है कि पीछे से बने हुए काव्यों में, मुख्य विषय की ओर तो कम, परंतु आनुषंगिक बातों की ओर विशेष ध्यान दिया गया है और उन्हीं का विशेष विस्तार किया गया है । द्वितीय सर्ग में हंस के मुख से एक बार श्रीहर्षजी दमयंती का वर्णन कर चुके हैं ; परंतु उतने से आपकी तृप्ति नहीं हुई । पूरा सप्तम सर्ग-का-सर्ग फिर भी दमयंती के सिर से लेकर पैर तक के वर्णन से भरा हुआ है। यही नहीं, आगे दशम सर्ग में, स्वयंवर के समय भी, इस वर्णन का पिष्ट-पेषण हुआ है। कहाँ तो नल दिक्पालों का संदेश कहने गए थे, कहाँ दमयंती के मंदिर में प्रवेश करके आप उसका रूप वर्णन करने लगे। सो भी एक-दो श्लोकों में नहीं, आपके मुख से सैकड़ों श्लोक कहाए गए हैं । उसमें एक और भी विशे- षता हुई है। श्रीहर्ष ने दमयंती के गुप्त अंगों तक का वर्णन नहीं छोड़ा। यह बात, आज तक, श्रीहर्ष को छोड़कर और किसी महाकवि ने अपने काव्य में नहीं की। आप लिखते हैं—
अंगेन केनापि विजेतुमस्या
गवेष्यते किं चलपत्रपत्रम् ?
न चेद्विशेषादितरच्छदेभ्य-
स्तस्यास्तु कम्पस्तु कुतो भयेन ।