भावार्थ—हे शशलांछन ! जिस समय मंदराचल ने समुद्र का मंथन किया था, उस समय भी तू चूर्ण न हो गया ! अथवा जब अगस्त्य मुनि ने समुद्र-पान किया था, तब उनके जठराग्नि में भी तू गल न गया !
अब देखिए, श्रीहर्ष ने विष्णु की कैसी खबर ली है—
ऋजुदृशः कथयन्ति पुराविदो-
मधुभिदं किल राहुशिरश्छिदम् ।
विरहिमूर्द्धभिदं निगदन्ति न
क नु शशी यदि तञ्जठरानलः।
भावार्थ—भोले-भाले पुरातत्त्व-वेत्ता ऋषि, विष्णु को राहु- शिरश्छिद्, अर्थात् राहु का सिर काटनेवाला, कहते हैं। यह उनकी महाभूल है । उनको चाहिए कि राहुशिरश्छिद् के स्थान में विरहिमूद्धभिद्, अर्थात् विरही जनों के सिर काटनेवाले, के नाम से विष्णु को पुकारें; क्योंकि, यदि वे राहु का सिर न काट लेते तो, ग्रहण के समय, चंद्रमा उसके उदर में जाकर जठराग्नि में गल गया होता; और यदि वह गल जाता, तो विरहिणी स्त्रियों अथवा पुरुषों की चंद्रसंतापजात मृत्यु न होती।
क्या कहना है ! इससे बढ़ी-चढ़ी कल्पना और क्या हो सकती है !
दमयंती ने काम का भी बहुत उपालंभ किया है; परंतु