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श्रीहर्ष की कविता के नमूने

अब चंद्रोपालंभ सुनिए । इस उपालंभ में श्रीहर्ष ने विष्णु भगवान् तक को याद किया है—

अयि विधुं परिपृच्छ गुरोः कुतः
स्फुटमशिक्ष्यत दाहवदान्यता ?
ग्लपितशम्भुगलाद़रलाचया ?
किमुदधौ जड ! वा वडवानलात् ?

(सर्ग ४, श्लोक ४८)
 

भावार्थ—अयि सखि, तू चंद्रमा से पूछ कि तूने किस गुरु से यह दाहिका विद्या सीखी है ? हे जड़! कालकूट विष पीनेवाले शंकर के कंठ से सीखी है अथवा बड़वानल से सीखी है ?

शंकर के ललाट पर चंद्रमा का वास है और समुद्र से वह निकला है । अतएव कहे हुए दोनो मार्गों से दाहत्व सीखना संभव है।

अयंमयोगिवधूवधपातकै
र्भ्रमिमवाप्य दिवः खलु पात्यते ।
शितिनिशादृषदि स्फुटमुस्पतत्
कणगणाधिकतारकिताम्बरः ।

(सर्ग ४, श्लोक ४६)
 

भावार्थ—इस चंद्रमा ने अनेक निरपराध विरहिणी स्त्रियों को मारकर पाप कमाया है। इसी से फिराकर, अँधेरो- रात्रि-रूप पत्थर के ऊपर आकाश से, यह पटका जाता है।