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नैषध-चरित-चर्चा

सम्मति है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीहर्ष ने दमयंती के मुख से जो श्लोक कहाया है, वह बहुत ही चमत्कार-पूर्ण है। दमयंती कहती है—

मनस्तु यं नोज्झति जातु यातु ;
मनोरथः कण्ठपथं कथं सः;
का नाम बाला द्विजराजपाणि-
ग्रहाभिलाषं कथयेदभिज्ञा ?

(सर्ग ३, श्लोक ५९)
 

भावार्थ—जिस मनोरथ को मन ही नहीं छोड़ता अर्थात् जिसको मैंने हृदय में धारण कर रक्खा है, वह मनोरथ कंठदेश को किस प्रकार जा सकता है ? अर्थात् मन की बात को मैं वाणी का विषय किस प्रकार कर सकती हूँ । कहिए, कौन विवेकवती बाला स्त्री चंद्रमा को हाथ से पकड़ने की अभिलाषा व्यक्त कर सकती है ? अर्थात् हाथ से चंद्रमा को पकड़ लेना जैसे दुस्तर है, वैसे ही मेरे मनोरथ की सिद्धि भी दुस्तर है।

'द्विजराज' चंद्रमा का नाम है । अतएव 'द्विजराजपाणि- ग्रहणाभिलाषम्' इस प्रकार छेद करने से पूर्वोक्त अर्थ निकलता है। परंतु, 'द्विज' और 'राजपाणिग्रहणाभिलाषम्' इस प्रकार पृथक-पृथक् छेद करने से यह अर्थ निकलता है कि हे द्विज ! (पक्षिन्!) जिसे किंचिन्मात्र भी बुद्धि ईश्वर ने दी है, ऐसी कौन बाला स्त्री राजा से पाणिग्रहण होने की अभिलाषा कर