पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/८६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८५
श्रीहर्ष की कविता के नमूने

धार्यः कथंकारमहं भवत्या
वियद्विहारी वसुधैकगत्या ?
अहो शिशुत्वं तब खंडितं न
स्मरस्य सख्या वयसाप्यनेन ।

(सर्ग ३, श्लोक १५)
 

भावार्थ—मैं आकाश में उड़नेवाला; तू पृथ्वी पर चलनेवाली। फिर, तू ही कह, तू किस प्रकार मुझे पकड़ सकती है ? यद्यपि तू यौवनावस्था में पदार्पण कर चुकी है, तथापि तेरा लड़कपन, अभी तक, नहीं छूटा । आश्चर्य है !

यह समस्त वर्णन स्वाभाविक है। इसी से इन श्लोकों से अलौकिक आनंद प्राप्त होता है । चौदहवाँ श्लोक बहुत ही ललित है । ऐसे ललित श्लोक नैषध-चरित में कम हैं। श्रीहर्ष- जी को सीधी बात अच्छी ही नहीं लगती। आपने दमयंती को 'अकेली' नहीं कहा; 'छायाद्वितीयां' कहकर नाम-मात्र के लिये उसको एक और साथी भी दे दिया। पंद्रहवें श्लोक को देखकर करीमा में शेखसादी की यह उक्ति—

चेहल साल उमरे अज़ीज़त् गुज़श्त ;
मिज़ाजे तो अज़हाल तिफ़्ली न गश्त ।

स्मरण आती है।

हंस ने दमयंती से नल की अतिशय प्रशंसा की। फिर कहा कि मैंने ब्रह्मदेव से एक बार यह सुना है कि नल ही दमयंती के योग्य वर है । अतएव इस विषय में तुम्हारी क्या