उत्प्रेक्षा के साथ-ही-साथ शब्दों का घटाटोप भी देखने योग्य है। तीसरे सर्ग में हंस और दमयंती की बातचीत है । जहाँ सहेलियों के साथ दमयंती बैठी थी, वहीं अकस्मात् हंस पहुँच गया । उसको देखकर वे सब चकित हो गई। दमयंती ने हंस को पकड़ना चाहा । वह उसके पीछे-पीछे दौड़ी। जब वह बहुत दूर तक निकल गई और उसकी सहेलियाँ सब पीछे रह गईं, तब हंस ने उससे वार्तालाप करना आरंभ किया। इस पर श्रीहर्ष ने बहुत ही सरस, सरल और ललित श्लोक कहे हैं। शायद इस समय वह 'ग्रंथग्रंथि'-वाली बात भूल गए थे। यहाँ के कई श्लोक हम उद्धृत करते हैं—
रुषा निषिद्धालिजनां यदैनां
छायाद्वितीयां कलयाञ्चकार ।
तदा श्रमाम्भःकणभूषितांगीं
स कीरवन्मानुषवागवादीत् ।
भावार्थ—क्रुद्ध होकर (ये हंस को उड़ाए देती हैं, इसलिये) अपनी सहेलियों को आने से जिसने रोक दिया है; छाया के सिवा और कोई जिसके साथ नहीं; दौड़ने के श्रम से जिसके सारे शरीर पर स्वेद-कण शोभा दे रहे हैं—ऐसी दमयंती से हंस शुकवत् मनुष्य की वाणी बोला—
अये ! कियद्यावदुपैषि दूरं?
व्यर्थ परिश्राम्यसि वा किमर्थम् ?