चलने को तो मिले। देखिए, कैसे चालाक घोड़े थे ! इस अत्युक्ति का कहीं ठिकाना है । सुनते ही चित्त में यह भाव उदित होता है कि यह सब बनावट है। इसी से मन मुदित नहीं होता।
नल की अयाचकता की प्रशंसा—
स्मरोपतप्तोऽपि भृशं न स प्रभु-
र्विदर्भराजं तनयामयाचत ;
त्यजन्त्यसून् शर्म च मानिनो वरं
त्यजन्ति नस्वेकमयाचितव्रतम् ।
भावार्थ—यद्यपि राजा नल को सब सामर्थ्य था तथापि, अत्यंत कामात होने पर भी, उसने राजा भीम से दमयंती को न माँगा। यही चाहिए भी था । मनस्वी पुरुष, सुख की कौन कहे, प्राण तक छोड़ने से नहीं हिचकते; परंतु अपना अयाचित-व्रत कदापि नहीं छोड़ते । वे मर जायँगे, परंतु माँगेंगे नहीं।
इस पद्य में कोई अत्युक्ति नहीं; बात यथार्थ कही गई है। यही कारण है, जो इसको पढ़ते ही हृदय फड़क उठता है और अद्भुत आनंद मिलता है।
नल ने जब हंस को पकड़ लिया, तब उसने नल पर खूब वाग्बाण छोड़े। देखिए—
पदे पदे सन्ति भटा रणोद्भया
न तेषु हिंसारस एष पूर्य्यते ?