पहले पंडित लोग, जब हाथ से पुस्तकें लिखते थे, तब, यदि कोई शब्द अधिक लिख जाता था, तो उसके चारो तरफ़ हरताल से एक घेरा बनाकर उसकी निरर्थकता व्यक्त करते थे। उसी को देखकर जान पड़ता है, श्रीहर्ष को यह कल्पना सूझी है। परंतु सूझी बहुत दूर की है। इसी से इस उक्ति से विशेष आनंद नहीं आता । सूर्य और चंद्रमा के आस-पास कभी-कभी मंडल देख पड़ता है, सदैव नहीं। इसी से 'यदा-यदा' कहा गया। सष्टि-रचना में व्यस्त रहने से, इस प्रकार के सोच- विचार के लिये ब्रह्मदेव को सदा समय नहीं मिलता। परंतु जब कभी मिलता है, तब सूर्य और चंद्रमा को बनाना अपनी भूल समझकर उसी समय, तत्काल, उनके आस-पास वह रेखा खींच देता है। भूल सुधारनी ही चाहिए ।
राजा नल के घोड़ों का वर्णन—
प्रयातुमस्माकमियं कियत्पदं
धरा तदम्भोधिरपि स्थलायताम्।
इतीव वाहैनिनवेगदर्पितैः
पयोधिरोधक्षममुस्थितं रज:।
भावार्थ—इस पृथ्वी को पार कर जाना तो हमारे लिये कोई बात ही नहीं। यह है कितनी ? इस प्रकार मानो मन में कहते हुए, नल के घोड़ों ने समुद्र पार कर लेने ही के लिये धूल उड़ाना आरंभ किया। अर्थात् समुद्र भी धरातल हो जाय, तो कुछ दूर