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नैषध-चरित-चर्चा

विभज्य मेरुन यदर्थिसात्कृतो
न सिन्धुरुत्सर्गजलव्ययैर्मरुः ।
अमानि सत्तेन निजायशोयुगं
द्विकालवद्धाश्चिकुराः शिरः स्थितम् ।

(सर्ग १, श्लोक १६)
 

इसका अनुवाद गुमानीजी ने किया है—

कवितानि सुमेरु न बाँटि दियो ,
जलदानन सिंधु न सोकि लियो ;
दुहुँ भोर बँधी जुल्ल फैं सुमली ,
नृप मानत औयश की अवली।

हमको विश्वास है, इस अनुवाद के श्राशय को थोड़े ही लोग समझ सकेंगे। 'कवितानि' और 'औयश' से यहाँ क्या अर्थ है, सो विना मूल ग्रंथ देखे ठीक-ठीक नहीं समझ पड़ता। 'औयश' से अभिप्राय अपयश या अयश से है और 'कवितानि' से अभिप्राय 'कवियों' से है ! श्लोक का भावार्थ यह है—

राजा नल सारे सुमेरु को काट-काटकर याचकों को नहीं दे सके; और, दान के समय, संकल्प के लिये समुद्र से जल ले-लेकर उसे मरुस्थलं नहीं बना सका । अतएव अपने सिर पर, दोनो ओर, दो भागों में विभक्त केश-कलाप को उसने अपने दो अपयशों के समान माना ।

यह भाव गुमानीजी के अनुवाद को पढ़कर मन में सहज