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श्रीहर्ष की गर्वोक्तियाँ

'नव्य', 'अतिनव्य' इत्यादि पद-प्रयोग कर देना तो। उनके लिये साधारण बात है। उन्होंने तो काश्मीर तक के पंडितों से नैषध की पूजा को जाने का उल्लेख किया है। इसके अति रिक्त कई सगों के अंत में आपने अपने कवित्व की और भी मनमानी प्रशंसा की है। देखिए—

तर्केष्वप्यसमश्रमस्य दशमस्तस्य व्यरंसीन्महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः।

अर्थात् जिसने केवल कविता ही में नहीं, किंतु तर्कशास्त्र में भी बड़ा परिश्रम किया है, उसके नैषध-चरित का दसवाँ सर्ग समाप्त हुआ। आगे चलिए—

श्रृंगारामृतशीतगावयमगादेकादशस्तन्महा-
काव्येऽस्मिन् निषधेश्वरस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् शृंगाररूपी अमृत से उत्पन्न हुए चंद्रमा के समान उज्ज्वल और आह्लादकारक, मेरे नैषध-चरित के एकादश सर्ग का अंत हुआ। और लीजिए—

स्वादूत्पादभृति त्रयोदशतयाऽऽदेश्यस्तदीये महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् अतिशय स्वादिष्ठ अथों को उत्पन्न करनेवाले नैषध-चरित के प्रयोदश सर्ग की समाप्ति हुई । और—

यातस्तस्य चतुर्दशः शरविनज्योत्स्नाच्छसूक्तर्महा-
कान्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् शरत्कालीन चंद्रमा की चंद्रिका के समान उज्ज्वल