सुनते हैं, श्रीहर्षजी परम मातृभक्त थे। अपनी माता को वह देवी के समान समझते थे। नैषध चरित के बारहवें सर्ग के इस—
तस्य द्वादश एष मातृचरणाम्भोजालिमौजेर्महा-
काव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गाज्ज्वलः ।
अंतिम श्लोकार्द्ध में श्रीहर्षजी अपनी माता के चरण-कमल में, मधुप के समान, अपना मस्तक रखना स्वयं भी स्वीकार करते हैं। किसी-किसी का कथन है कि माता ही के उपदेश से इन्होंने 'चिंतामणि-मंत्र' सिद्ध करके अद्भत कवित्व-शक्ति प्राप्त की थी। नैषध के प्रथम सर्ग का अंतिम श्लोक, जो हम पहले एक स्थल में उद्धत कर पाए हैं, उसमें श्रीहर्ष ने अपने ही मुख से यह कहा है कि चिंतामणि-मंत्र ही के प्रभाव से वह यह काव्य लिखने में समर्थ हुए हैं। पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी एक प्रबंध में लिखा है कि लोग कहते हैं, श्रीहर्ष ने देवाराधना करके अप्रतिम कवित्व-शक्ति पाई थी । चिंतामणि-मंत्र का स्वरूप और उसका फल श्रीहर्षजी ने नैषध-चरित में विशेष रूप से दिया भी है । देखिए—