चरित की टीका बनाई। इस टीका में उसने भी लिखा है कि श्रीहर्ष ने अपने पिता के जीतनेवाले उदयनाचार्य को शास्त्रार्थ में परास्त किया । इसलिये इससे भी राजशेखर के कथन की पुष्टि होती है । चांडु ने अपनी टीका में नैषध-चरित को 'नवीन काव्य' लिखा है, और यह भी लिखा है कि उस समय तक नैषध-चरित की विद्याधरी-नामक केवल एक ही टीका उपलब्ध थी। पर इस समय इस काव्य की तेईस तक टीकाएँ देखी गई हैं।
प्रबंधकोष में लिखा है कि जयचंद्र के प्रधान मंत्री ने ११७४ ईसवी में सोमनाथ की यात्रा की। इस यात्रा-वर्णन के पहले ही श्रीहर्ष का काश्मीर जाना वर्णन किया गया है। नैषध-चरित लिखने के अनंतर श्रीहर्ष काश्मीर गए थे। अतः उन्होंने ११७४ ईसवी के कुछ दिन पहले ही नैषध की रचना की होगी।
श्रीहर्ष ने नैषध के प्रति सर्ग के अंत में अपने माता- पिता के नाम का पिष्ट-पेषण किया है; परंतु किसी सर्ग के अंत में अपना समय तथा जन्मभूमि और जिस राजा के यहाँ आप रहे, उसका नाम आदि लिख देने की कृपा नहीं की। तथापि प्रबंधकोष के अनुसार यह प्रायः सिद्ध-सा है कि वह राजा जयचंद के आश्रय में थे।
गोविंद-नंदनतया—आदि श्लोक से यह भी सूचित होता है कि वह जयचंद्र के पिता ही के समय में कान्यकुब्ज की राजधानी में पहुँच गए थे।