किया, जिससे हम मिश्र-पदवी को प्राप्त हुए। श्रीहर्षजी का राजमान्ध होना भी ये सूचित करते हैं। परंतु वे हुए कब, इसका पता उन्हें नहीं। जैसा कि आगे लिखा जायगा, इन लोगों का अनुमान सच जान पड़ता है। मीराँसराय में रहनेवाले विद्वान् का वहीं निकटवर्ती क़न्नौज के राजा की सभा में रहना बहुत ही संभव है।
सुनते हैं, बंगदेश में पहले सत्पात्र ब्राह्मण न थे। इस न्यूनता को दूर करने के लिये सेनवंशीय आदि-शूर-नामक राजा ने कान्यकुब्ज-प्रदेश से परम विद्वान् पांच ब्राह्मणों को बुलाकर अपने देश में बसाया था। इन पाँच में से एक श्रीहर्षनामी भी थे। डॉक्टर राजेंद्रलाल मित्र ने आदि-शूर का स्थिति-काल ईसवी सन् की दशम शताब्दी (९८६) में स्थिर[१] किया है। यदि यह वही श्रीहर्ष थे, जिन्होंने नैषध-चरित लिखा है, तो डॉक्टर बूलर का यह कहना ठीक नहीं कि नैषध-चरित बारहवीं शताब्दी का काव्य है। नैषध-चरित के सप्तम सर्ग के अंत में—
गौडोर्व्विशकुलप्रशस्तिमणितिभ्रातर्य्ययं[२] तन्महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्सप्तमः।
और नवम सर्ग के अंत में—