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श्रीहर्ष-विषयक कुछ बातें

यहाँ तक के विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि काश्मीर और कान्यकुब्ज के नरेश श्रीहर्ष का नैषध-चरित के रचयिता श्रीहर्ष से कोई संबंध नहीं। नैषध में कवि ने प्रत्येक सर्ग के अंत में एक-एक श्लोक ऐसा दिया है, जिसका प्रथमार्द्ध सब सर्गों में वही है। यथा, प्रथम सर्ग में—

श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं;
श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम्।

अर्थात् सकल कवियों के मुकुटमणि श्रीहीर-नामक पिता, और मामल्लदेवी नाम्नी माता, ने जिस जितेंद्रिय सुत श्रीहर्ष को उत्पन्न किया—

तच्चिन्तामणिमन्न चिन्तनफले शृङ्गारभंग्या महा-
काव्ये चारुणि[] नैषधीयचरिते सर्गोऽयमादिर्गतः।

उसके चिंतामणिमंत्र की उपासना का फल-स्वरूप शृंगाररसप्रधान, अत्यंत रमणीय, नैषध-चरित, महाकाव्य का प्रथम सर्ग समाप्त हुआ।


  1. इस श्लोकार्द्ध में 'चारुणि' पद ध्यान में रखने योग्य है। श्रीहर्ष की यह प्रथम गर्वोक्ति है।