है। परंतु राजा होने के पहले ही श्रीहर्ष ने रत्नावली लिखी, और लिखी जाने पर वह वर्ष ही छ महीने में काश्मीर से मालवा पहुँची, यह असंभव-सा जान पड़ता है। यही मत महामहोपाध्याय पंडित महेशचंद्र न्यायरत्न का भी है।
काश्मीर-देशवासी मम्मट भट्ट-कृत काव्य-प्रकाश में लिखा है—
"श्रीहर्षादेर्धावकादीनामिव धनम्"
इसकी टीका पंडित महेशचंद्र न्यायरत्न ने इस प्रकार की है—
"धात्रकः किल श्रीहर्षनाम्ना रत्नावली कृश्वा बहुधनं लब्धवानिति प्रसिद्धिः।"
अर्थात् धावक कवि ने श्रीहर्ष के नाम से रत्नावली की रचना करके बहुत धन प्राप्त किया। इस आख्यायिका का अवलंबन करके रत्नावली और नागानंद का कर्तृश्व लोग श्रीहर्ष पर मढ़ते हैं। परंतु इस कथा से काश्मीराधिपति श्रीहर्ष का कोई संबंध नहीं। यदि धावक द्वारा रत्नावली का रचा जाना मानें, तो यह भी मानना पड़ेगा कि वह एकादश शताब्दी से बहुत पहले लिखी गई थी, क्योंकि मालविकाग्निमित्र की प्रस्तावना में कालिदास ने कहा है—
"मा तावत्। प्रथितयशसां धावकसौमिल्लककविपुत्रादीनां प्रबन्धानतिक्रम्य वर्तमानकवेः कालिदासस्य कृतौ किं कृतो बहुमानः?"
इससे स्पष्ट है कि धावक कालिदास से पहले हो गया है। प्रोफ़ेसर वेबर[१] और लासन[२] के मत में कालिदास ईसवी