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श्रीहर्ष की कविता के नमूने

स्वभाव ही से नासा और कर्ण नहीं । अतएव दोनो ही 'अकर्णनास' हुए । नाक-कान कट जाने से शूर्पणखा के मुख से रक्त की धारा बहने लगी थी । चंद्रमंडल से रक्त के रंग की अरुण किरण रूपी धारा बहती है । अतएव दोनो हो 'रक्तोस्रवर्षी' हुए। शूर्पणखा का मुख लक्ष्मणजी के द्वारा अभिभूत हुआ था। चंद्रमा भी 'लक्ष्मणा कलंकेन' अर्थात् कलकवाची लक्ष्म के द्वारा अभिभूत हो रहा है। अतएव दोनो ही 'लक्ष्मणाभिभून' हुए । शूर्पणखा के मुख को 'अभिरामं सीतास्य' अर्थात् रामचद्र के सम्मुख स्थित भो सीता के मुख को देखकर लज्जा न आई थी । यहाँ चंद्रमा को भी 'अभिरामं सीतास्यमिव' अर्थात् अति सौंदर्यवान् सीता के मुख-सदृश दमयंती के मुख का देख कर लज्जा नहीं आती। इस प्रकार शब्दच्छल से दानो में समता दिखा दी गई । देखिए तो सही, कैसे योग्यता-पूर्ण श्लिष्ट पद रखकर और चंद्रमा की नाक तथा कान काटकर, शूर्पणखा के मुख की तुल्यता उसमें उत्पन्न की गई है ! कवे धन्योऽसि ।

दमयंती के पााण-ग्रहण के समय के दो श्लोक सुनिए । कही-कही यह आचार है कि कन्यादान के समय वधू और वर दानो क हाथ कुश से बाँध दिए जाते हैं। इस बाँधने पर उत्प्रेक्षा—

वरस्य पाणिः परघातकौतुकी
वधूकरः पकजकान्तितस्करः !