हुआ। त्रयोदश सर्ग में इसी तरह अपूर्व कौशल से उन्होंने प्रायः प्रत्येक श्लोक में बराबर दो-दो अर्थ संश्लिष्ट किए हैं।
श्रीहर्ष के श्लेषवैलक्षण्य का एक और उदाहरण देखिए । इस पद्य को पढ़कर बड़ी हँसी आती है । कवि ने इसमें चंद्रमा की नाक और कान काटकर, शूर्पणखा के मुग्व से उसकी तुलना की है। बाईसवें सर्ग में, संध्या-समय, दमयंती को संबोधन करके नल चंद्रमा का वर्णन करता है—
अकर्णनासस्त्रपते मुखं ते
पश्यन्न सीतास्यमिवाभिरामम् ;
रक्तोस्त्रवर्षी बत लचमणाभि-
भूर्तः शशी शूर्पणखामुखाम्: ।
भावार्थ—कर्ण और नासा-रहित, लाल-लाल किरणों की वर्षा करनेवाला, कलंक से अभिभूत हुआ, शूर्पणखा के समान, यह चंद्रमा—सर्व अवयव-संयुत, सीता के मुख-सदृश सुंदर, तेरे इस मुख को देख करके भी लज्जित नहीं होता ! अर्थात् लज्जा से मुख न छिपाकर पुनः-पुनः आकाश में उदित होता है। यह आश्चर्य की बात है या नहीं ? इसे तो डूब मरना चाहिए था!
चंद्रमा और शूर्पणखा के मुख में समता किस प्रकार है, सो सुनिए । शूर्पणखा के नाक और कान काट लिए जाने के कारण उसका मुख नासा-कर्ण-हीन हो गया था। चंद्रबिंब में