गीयन्ते स्वरमष्टमं कलयता जातेन बन्ध्योदरा-
न्मूकानां प्रकरण कूर्मरमणीदुग्धोदधे रोधसि ।
भावार्थ—परार्द्ध के पार की संख्या से लक्षीकृत और जन्मांधों से दृश्यमाण तिमिर के स्वरूपवाली, इस राजा की अकीर्तियाँ, कच्छपी के दुग्ध से उत्पन्न हुए समुद्र के तट पर, बंध्या के उदर से उत्पन्न मूकों के समूह द्वारा, अष्टम स्वर में, गाई जाती हैं । अर्थात् जैसे इन सब वर्णित वस्तुओं का अभाव है, वैसे ही इस राजा को अकीर्तियों का भी अभाव समझना चाहिए । इस नरेश में अकीर्तिलेश भी आकाशकुसुमवत् है— यह भाव।
श्लेषमयी 'पंचनली' का उल्लेख हम ऊपर कर आए हैं। उसका अंतिम श्लिष्ट श्लोक यह है—
देवः पतिविदुषि ! नैषधराजगत्या
निर्णीयते न किमु न वियते भवत्या ?
नायं नलः खलु तवातिमहा नलाभो
यद्येनमुञ्झसि वरः कतरः पुनस्ते ?
नल के सम्मुख दमयंती खड़ी है। इस श्लोक में नल और देवता दोनो का अर्थ व्यंजित करके, सरस्वती उसे मोह में डाल रही है। देवार्थ कैसे निकलता है, सो पहले देखिए—
अन्वय—(हे) विदुषि ! एषः धराजगत्याः पतिः न,