पदापवाय्यापि न दातुमुत्तरं
शशाक सख्याः श्रवसि प्रियाय सा;
विहस्य सख्येव तमब्रवीत्तदा
हियाधुना मौनधना भवस्प्रिया।
भावार्थ—एकांत में भी जब दमयंती अपनी सखी के कान में भी नल के प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ न हुई, तब सखी ही ने मंदहास्य-पूर्वक नल से कहा—'आपकी प्रियतमा लज्जापरवशा होने के कारण मौन हो रही है।" इसके न बोलने का कारण विराग नहीं, यह भाव ।
तदनंतर सखी ने नल से दमयंती के अनुराग और विरह-व्यथादि का वर्णन खूब ही नमक-मिर्च लगाकर किया ।
यह निबंध बहुत बढ़ गया। अतएव दो ही चार और श्लोक उद्धृत करके हम इसको समाप्त करना चाहते हैं। नीचे के पद्य में श्रीहर्षजी की कल्पना का 'द्राविड़ो प्राणायाम' देखने योग्य है। स्वयंवर में आए हुए एक राजा के विषय में यह कहना है कि इसमें अकीर्ति का लेश भी नहीं है। परंतु इस बात को श्रीहर्षजी सीधे तौर पर न कहकर इस प्रकार कहते हैं—
अस्य क्षेणिपतेः परार्द्धपरया बक्षीकृताः संख्यया
प्रज्ञाचक्षुरवेदयमाणतिमिरप्रख्याः किलाकीर्तयः ।