भावार्थ—कृपा करके बोल; दया करके चंबन-दान दे; प्रसन्न होकर अपने शरीर को स्पर्श करने दे; क्योंकि चंद्रमा के किरण-समूह की अवलंबभूता निशा के समान, मुझ नल की एक-मात्र तू ही प्राणाधार है।
इस प्रकार प्रलाप करने के अनंतर जब प्रबोध हुआ, तब नल ने अत्यंत पश्चात्ताप किया । लोग मुझे क्या कहेंगे ? सुरेंद्रादि देवता अपने मन में क्या समझेंगे ? इस प्रकार तर्क- वितर्क करके नल ने बहुत विषाद किया। इस अवसर की एक उक्ति नल के मुख से सुनिए—
स्फुटत्यद: किं हृदयं त्रपाभगद्
यदस्य शुद्धैविबुधैर्विबुध्यताम् ।
विदन्तु ते तस्वमिवन्तु दन्तुरं
जनानने का करमर्पयिष्यति ?
भावार्थ—मेरा हृदय लज्जा से फट क्यों नहीं जाता ? यदि यह फट जाता, तो शुद्ध हृदय देवतों को इसकी शुद्धता तो विदित हो जाती । देवतों को मेरे हृदय की शुद्धता विदित हो, अथवा न हो, परंतु नाना प्रकार की अपवाद-सूचक बातें करनेवाले लागों के मुख पर कौन हाथ धरेगा ? यही महा- दुःख है !
नल ने किस युक्ति और किस दृढ़ता से देवतों का काम किया, सो लिखा ही जा चुका है। तिस पर भी ऐसे-ऐसे उद्गार!