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नैषध-चरित-चर्चा
क याचतां कल्पलतासि मां प्रति
क दृष्टिदाने तव बद्धमुष्टिता ।
(सर्ग ९, श्लोक १०९)
भावार्थ—मेरा और अधिक गौरव कर अथवा न कर; इस विषय में मैं कुछ नहीं कहता; परंतु मेरे प्रणाम-मात्र का अंगीकार करने में कौनं बड़ा परिश्रम है ? याचकों के लिये तो तू कल्पलता हो रही है; परंतु मेरे लिये इतनी बद्धमुष्टिता कि दृष्टि-दान तक नहीं देती—एक बार मेरी ओर देखती भी नहीं !
समापय प्रावृषमश्रुविप्रुषां
स्मितेन विवाश्रय कौमुदीमुदः;
दृशावितः खेलतु खञ्जनद्वयी
विकाशि पंकेरुहमस्तु ते मुखम् ।
(सर्ग ९, श्लोक ११२)
भावार्थ—अश्रु बरसाना बंद कर; मंद मुसकान से चंद्र की भी चंद्रिका को प्रसन्न कर; नेत्र-रूपी खंजनयुग्म को देखने दे; कमल के समान मुख को प्रफुल्लित कर ।
गिरानुकम्पस्व दयस्व चुम्बनैः
प्रसीद शुश्रूषयितुं मया कुचौ ;
निशेव चान्द्रस्य करोस्करस्य य-
मम स्वमेकासि नलस्य जीवितम् ।
(सर्ग ९, श्लोक ११९)