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श्रीहर्ष की कविता के नमूने

स्वरस्व पञ्चेषु हुताशनात्मन-
स्तनुष्व मनस्मचयं यशश्चयम् ।
विधे ! परेहाफलभक्षणव्रती
पताद्य तृप्यासुभिर्ममाफलैः ।

(सर्ग ९, श्लोक ८८)
 

भावार्थ—हे कामाग्ने ! तू शीघ्र ही मेरे शरीर को भस्म करके अपने यशःसमूह का विस्तार कर । हे विधाता ! दूसरे की कामना भंग करना ही तेरा कुलव्रत है ! तू भी मेरे इन दुष्ट प्राणों से तृप्त होकर पतित हो जा!

भृशं वियोगानखताप्यमान ! कि
विलीयसे न स्वमयोमयं यदि ;
स्मरेषुभिर्भेय ! न वज्रमप्यसि
ब्रवीषि न स्वान्त ! कथं न दीरय्यसे ?

(सर्ग ९ श्लोक ८९)
 

भावार्थ—हे अंतःकरण ! वियोगरूपी ज्वाला से प्रज्वलित होकर भी तू क्यों नहीं विलय को प्राप्त होता ? यदि तू लोहे का है, तो भी तो तप्त होने से तुझे गल जाना चाहिए ! यदि यह कहूँ कि त लोहे का नहीं, किंतु वज्र का है, इससे नहीं गलता, तो तू काम-बाणों स विध रहा है। अतएव तू वन का भी नहीं । फिर तू ही कह, तू किस वस्तु से बना है ? क्यों नहीं तू विदीर्ण हो जाता ?