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डॉक्टर—मुझे तो भाई, उनपर बड़ी दया आती है। यह जमाना उनके आराम करने का था। एक तो बुढ़ापा, उस पर जवान बेटे का शोक, स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं। ऐसा आदमी क्या कर सकता है? वह जो कुछ थोड़ा-बहुत करते हैं, वही बहुत है। तुम अभी और कुछ नहीं कर सकते तो कम-से-कम अपने आचरण से तो उन्हें प्रसन्न रख सकते हो। बुड्ढों को प्रसन्न करना बहुत कठिन काम नहीं। यकीन मानो, तुम्हारा हँसकर बोलना ही उन्हें खुश करने को काफी है। इतना पूछने में तुम्हारा क्या खर्च होता है-बाबूजी, आपकी तबीयत कैसी है? वह तुम्हारी यह उदंडता देखकर मन-ही-मन कुढ़ते रहते हैं। मैं तुमसे सच कहता हूँ, कई बार रो चुके हैं। उन्होंने मान लो शादी करने में गलती की। इसे वह भी स्वीकार करते हैं, लेकिन तुम अपने कर्तव्य से क्यों मुँह मोड़ते हो? वह तुम्हारे पिता हैं, तुम्हें उनकी सेवा करनी चाहिए। एक बात भी ऐसी मुँह से न निकालनी चाहिए, जिससे उनका दिल दुःखे। उन्हें यह खयाल करने का मौका ही क्यों दो कि सब मेरी कमाई खानेवाले हैं, बात पूछने वाला कोई नहीं। मेरी उम्र तुमसे कहीं ज्यादा है जियाराम, पर आज तक मैंने अपने पिताजी की किसी बात का जवाब नहीं दिया। वह आज भी मुझे डाँटते है, सिर झुकाकर सुन लेता हूँ। जानता हूँ, वह जो कुछ कहते हैं, मेरे भले ही को कहते हैं। माता-पिता से बढ़कर हमारा हितैषी और कौन हो सकता है? उसके ऋण से कौन मुक्त हो सकता है?

जियाराम बैठा रोता रहा। अभी उसके सद्भावों का संपूर्णत: लोप न हुआ था। अपनी दुर्जनता उसे साफ नजर आ रही थी। इतनी ग्लानि उसे बहुत दिनों से न आई थी। रोकर डॉक्टर साहब से कहा—मैं बहुत लज्जित हूँ। दूसरों के बहकाने में आ गया। अब आप मेरी जरा भी शिकायत न सुनेंगे। आप पिताजी से मेरे अपराध क्षमा करा दीजिए। मैं सचमुच बड़ा अभागा हूँ। उन्हें मैंने बहुत सताया। उनसे कहिए-मेरे अपराध क्षमा कर दें, नहीं मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँगा, डूब मरूँगा।

डॉक्टर साहब अपनी उपदेश-कुशलता पर फूले न समाए। जियाराम को गले लगाकर विदा किया।

जियाराम घर पहुँचा तो ग्यारह बज गए थे। मुंशीजी भोजन करके अभी बाहर आए थे। उसे देखते ही बोलेजानते हो कै बजे हैं? बारह का वक्त है।

जियाराम ने बड़ी नम्रता से कहा-डॉक्टर सिन्हा मिल गए। उनके साथ उनके घर तक चला गया। उन्होंने खाने के लिए जिद की, मजबूरन खाना पड़ा। इसी से देर हो गई।

मुंशीज-डॉक्टर सिन्हा से दुःखड़े रोने गए होंगे या और कोई काम था।

जियाराम की नम्रता का चौथा भाग उड़ गया, बोला-दुःखड़े रोने की मेरी आदत नहीं है।

मुंशीजी–जरा भी नहीं, तुम्हारे मुँह में तो जबान ही नहीं। मुझसे जो लोग तुम्हारी बातें करते हैं, वह गढ़ा करते होंगे?

जियाराम-और दिनों की मैं नहीं कहता, लेकिन आज डॉक्टर सिन्हा के यहाँ मैंने कोई बात ऐसी नहीं की, जो इस वक्त आपके सामने न कर सकूँ।

मुंशीजी-बड़ी खुशी की बात है। बेहद खुशी हुई। आज से गुरुदीक्षा ले ली है क्या?

जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया। सिर उठाकर बोला-आदमी बिना गुरुदीक्षा लिए हुए भी अपनी बुराइयों पर लज्जित हो सकता है। अपना सुधार करने के लिए गुरुमंत्र कोई जरूरी चीज नहीं।

मुंशीजी—अब तो लुच्चे न जमा होंगे?

जियाराम-आप किसी को लुच्चा क्यों कहते हैं, जब तक ऐसा कहने के लिए आपके पास कोई प्रमाण नहीं?

मुंशीजी-तुम्हारे दोस्त सब लुच्चे-लफंगे हैं। एक भी भला आदमी नहीं। मैं तुमसे कई बार कह चुका कि उन्हें यहाँ मत जमा किया करो, पर तुमने सुना नहीं। आज मैं आखिर बार कहे देता हूँ कि अगर तुमने उन शोहदों को जमा किया तो मुझे पुलिस की सहायता लेनी पड़ेगी।