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कहते-कहते रुक गई कि जब तक यह लक्ष्मी इस घर में रहेगी, इस घर की दशा बिगड़ती ही जाएगी। उसको प्रगट रूप से न कहने पर भी उसका आशय मुंशीजी से छिपा नहीं रहा। उनके चले जाने पर मुंशीजी ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें अपने ऊपर इस समय इतना क्रोध आ रहा था कि दीवार से सिर पटककर प्राणों का अंत कर दें। उन्होंने क्यों विवाह किया था? विवाह करने की क्या जरूरत थी? ईश्वर ने उन्हें एक नहीं, तीन-तीन पुत्र दिए थे? उनकी अवस्था भी पचास के लगभग पहुँच गई थी, फिर उन्होंने क्यों विवाह किया? क्या इसी बहाने ईश्वर को उनका सर्वनाश करना मंजूर था? उन्होंने सिर उठाकर एक बार निर्मला की सहास, पर निश्चल मूर्ति देखी और अस्पताल चले गए। निर्मला की सहास छवि ने उनका चित्त शांत कर दिया था। आज कई दिनों के बाद उन्हें शांति मयस्सर हुई थी। प्रेम-पीडित हृदय इस दशा में क्या इतना शांत और अविचलित रह सकता है? नहीं, कभी नहीं। हृदय की चोट भाव-कौशल से नहीं छिपाई जा सकती। अपने चित्त की दुर्बलता पर इस समय उन्हें अत्यंत क्षोभ हुआ। उन्होंने अकारण ही संदेह को हृदय में स्थान देकर इतना अनर्थ किया। मंसाराम की ओर से भी उनका मन निश्शंक हो गया। हाँ उसकी जगह अब एक नई शंका उत्पन्न हो गई। क्या मंसाराम भाँप तो नहीं गया? क्या भापकर ही तो घर आने से इनकार नहीं कर रहा है? अगर वह भाँप गया है तो महान् अनर्थ हो जाएगा। उसकी कल्पना ही से उनका मन दहल उठा। उनकी देह की सारी हड्डियाँ मानो इस हाहाकार पर पानी डालने के लिए व्याकुल हो उठीं। उन्होंने कोचवान से घोड़े को तेज चलाने को कहा। आज कई दिनों के बाद उनके हृदय मंडल पर छाया हुआ सघन घन फट गया था और प्रकाश की लहरें अंदर से निकलने के लिए व्यग्र हो रही थीं। उन्होंने बाहर सिर निकाल कर देखा, कोचवान सो तो नहीं रहा है। घोड़े की चाल उन्हें इतनी मंद कभी न मालूम हुई थी।

अस्पताल पहुँचकर वह लपके हुए मंसाराम के पास गए। देखा तो डॉक्टर साहब उसके सामने चिंता में मगन खड़े थे। मुंशीजी के हाथ-पाँव फूल गए। मुँह से शब्द न निकल सका। भरभराई हुई आवाज में बड़ी मुश्किल से बोले-क्या हाल है, डॉक्टर साहब? यह कहते-कहते वह रो पड़े और जब डॉक्टर साहब को उनके प्रश्न का उत्तर देने में एक क्षण का विलंब हुआ, तब तो उनके प्राण नहों में समा गए। उन्होंने पलंग पर बैठकर अचेत बालक को गोद में उठा लिया और बालक की भाँति सिसक-सिसककर रोने लगे। मंसाराम की देह तवे की तरह जल रही थी। मंसाराम ने एक बार आँखें खोलीं। आह, कितनी भयंकर और उसके साथ ही कितनी दूर दृष्टि थी। मुंशीजी ने बालक को कंठ से लगाकर डॉक्टर से पूछा-क्या हाल है, साहब! आप चुप क्यों हैं?

डॉक्टर ने संदिग्ध स्वर से कहा हाल जो कुछ है, वह आप देख ही रहे हैं। 106 डिग्री का ज्वर है और मैं क्या बताऊँ? अभी ज्वर का प्रकोप बढ़ता ही जाता है। मेरे किए जो कुछ हो सकता है, कर रहा हूँ। ईश्वर मालिक है। जबसे आप गए हैं, मैं एक मिनट के लिए भी यहाँ से नहीं हिला। भोजन तक नहीं कर सका। हालत इतनी नाजुक है कि एक मिनट में क्या हो जाएगा, नहीं कहा जा सकता? यह महाज्वर है, बिल्कुल होश नहीं है। रह-रहकर 'डिलीरियम' का दौरा-सा हो जाता है। क्या घर में इन्हें किसी ने कुछ कहा है! बार-बार, अम्माँजी, तुम कहाँ हो! यही आवाज मुँह से निकली है।

डॉक्टर साहब यह कह ही रहे थे कि सहसा मंसाराम उठकर बैठ गया और धक्के से मुंशीजी को चारपाई के नीचे ढकेलकर उन्मत्त स्वर से बोला-क्यों धमकाते हैं, आप! मार डालिए, मार डालिए, अभी मार डालिए। तलवार नहीं मिलती! रस्सी का फंदा है या वह भी नहीं। मैं अपने गले में लगा लूँगा। हाय अम्माँजी, तुम कहाँ हो! यह कहतेकहते वह फिर अचेत होकर गिर पड़ा।

मुंशीजी एक क्षण तक मंसाराम की शिथिल मुद्रा की ओर व्यथित नेत्रों से ताकते रहे, फिर सहसा उन्होंने डॉक्टर साहब का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत दीनतापूर्ण आग्रह से बोले डॉक्टर साहब, इस लड़के को बचा लीजिए,