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थर-थर काँप रहे थे और सिर में चक्कर-सा आ रहा था। आँखें जल रही थीं और शरीर के सारे अंग शिथिल हो रहे थे। दिन चढ़ता जाता था और उसमें इतनी शक्ति भी न थी कि उठकर मुँह-हाथ धो डाले। एकाएक उसने भुंगी को रूमाल में कुछ लिए हुए एक कहार के साथ आते देखा। उसका कलेजा सन्न रह गया। हाय। ईश्वर वे आ गई। अब क्या होगा? दूंगी अकेले नहीं आई होगी? बग्घी जरूर बाहर खड़ी होगी? कहाँ तो उससे उठा न जाता था, कहाँ भुंगी को देखते ही दौड़ा और घबराई हुई आवाज में बोला-अम्माँजी भी आई हैं, क्या रे? जब मालूम हुआ कि अम्माँजी नहीं आई, तब उसका चित्त शांत हुआ।

भूँगी ने कहा—भैया! तुम कल गए नहीं, बहूजी तुम्हारी राह देखती रह गईं। उनसे क्यों रूठे हो भैया? कहती हैं, मैंने उनकी कुछ भी शिकायत नहीं की है। मुझसे आज रोकर कहने लगीं-उनके पास यह मिठाई लेती जा और कहना, मेरे कारण क्यों घर छोड़ दिया है? कहाँ रख दूँ यह थाली?

मंसाराम ने रुखाई से कहा-यह थाली अपने सिर पर पटक दे चुडैल। वहाँ से चली है मिठाई लेकर खबरदार, जो फिर कभी इधर आई। सौगात लेकर चली है। जाकर कह देना, मुझे उनकी मिठाई नहीं चाहिए। जाकर कह देना, तुम्हारा घर है, तुम रहो, वहाँ वे बड़े आराम से हैं। खूब खाते और मौज करते हैं। सुनती है, बाबूजी के मुँह पर कहना, समझ गई? मुझे किसी का डर नहीं है और जो करना चाहें, कर डालें, जिससे दिल में कोई अरमान न रह जाए। कहें तो इलाहाबाद, लखनऊ, कलकत्ता चला जाऊँ। मेरे लिए जैसे बनारस, वैसे दूसरा शहर। यहाँ क्या रखा है?

भूँगी-भैया, मिठाई रख लो। नहीं रो-रोकर मर जाएँगी। सच मानो रो-रोकर मर जाएँगी।

मंसाराम ने आँसुओं के उठते हुए वेग को दबाकर कहा–मर जाएँगी, मेरी बला से। कौन मुझे बड़ा सुख दे दिया है, जिसके लिए पछताऊँ। मेरा तो उन्होंने सर्वनाश कर दिया। कह देना, मेरे पास कोई संदेशा न भेजें, कुछ जरूरत नहीं।

भूँगी–भैया, तुम तो कहते हो यहाँ खूब खाता हूँ और मौज करता हूँ, मगर देह तो आधी भी न रही। जैसे आए थे, उससे आधे भी न रहे।

मंसाराम—यह तेरी आँखों का फेर है। देखना, दो-चार दिन में मुटाकर कोल्हू हो जाता हूँ कि नहीं। उनसे यह भी कह देना कि रोना-धोना बंद करें। जो मैंने सुना कि रोती हैं और खाना नहीं खाती, मुझसे बुरा कोई नहीं। मुझे घर से निकाला है तो आप चैन से रहें। चली हैं, प्रेम दिखाने। मैं ऐसे त्रिया-चरित्र बहुत पढ़े बैठा हूँ।

भूँगी चली गई। मंसाराम को उससे बातें करते ही कुछ ठंड मालूम होने लगी थी। यह अभिनय करने के लिए उसे अपने मनोभावों को जितना दबाना पड़ा था, वह उसके लिए असाध्य था। उसका आत्म-सम्मान उसे इस कुटिल व्यवहार का जल्द-से-जल्द अंत कर देने के लिए बाध्य कर रहा था, पर इसका परिणाम क्या होगा? निर्मला क्या यह आघात सह सकेगी? अब तक वह मृत्यु की कल्पना करते समय किसी अन्य प्राणी का विचार न करता था, पर आज एकाएक ज्ञान हुआ कि मेरे जीवन के साथ एक और प्राणी का जीवन-सूत्र भी बँधा हुआ है। निर्मला यह समझेगी कि मेरी निष्ठुरता ही ने इनकी जान ली। यह समझकर उसका कोमल हृदय फट न जाएगा? उसका जीवन तो अब भी संकट में है। संदेह के कठोर पंजे में फंसी हुई अबला क्या अपने का हत्यारिणी समझकर बहुत दिन जीवित रह सकती है?

मंसाराम ने चारपाई पर लेटकर लिहाफ ओढ़ लिया, फिर भी सर्दी से कलेजा काँप रहा था। थोड़ी ही देर में उसे जोर से ज्वर चढ़ आया, वह बेहोश हो गया। इस अचेत दशा में उसे भाँति-भाँति के स्वप्न दिखाई देने लगे। थोड़ीथोड़ी देर के बाद चौंक पड़ता, आँखें खुल जाती, फिर बेहोश हो जाता। साह!