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वह इस समय अपने आप को निराधार समझ रहा था।

रात के दस बज गए थे। मुंशीजी आज कहीं दावत खाने गए हुए थे। दो बार महरी मंसाराम को भोजन करने के लिए बुलाने आ चुकी थी। मंसाराम ने पिछली बार उससे झुंझलाकर कह दिया था मुझे भूख नहीं है, कुछ न खाऊँगा। बार-बार आकर सिर पर सवार हो जाती है, इसलिए जब निर्मला ने उसे फिर उसी काम के लिए भेजना चाहा, तो वह न गई।

बोली-बहूजी, वह मेरे बुलाने से न आवेंगे।

निर्मला-आएँगे क्यों नहीं? जाकर कह दे खाना ठंडा हुआ जाता है। दो-चार कौर खा लें।

महरी–मैं यह सब कह के हार गई, नहीं आते।

निर्मला-तूने यह कहा था कि वह बैठी हुई हैं।

महरी-नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं कहा, झूठ क्यों बोलूँ।

निर्मला—अच्छा, तो जाकर यह कह देना, वह बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। तुम न खाओगे तो वह रसोई उठाकर सो रहेंगी। मेरी नँगी, सुन, अबकी और चली जा। (हँसकर) न आवें, तो गोद में उठा लाना। भुंगी नाक-भौं सिकोड़ते गई, पर एक ही क्षण में आकर बोली-अरे बहूजी, वह तो रो रहे हैं। किसी ने कुछ कहा है क्या?

निर्मला इस तरह चौंककर उठी और दो-तीन पग आगे चली, मानो किसी माता ने अपने बेटे के कुएँ में गिर पड़ने की खबर पाई हो, फिर वह ठिठक गई और दूंगी से बोली-रो रहे हैं? तूने पूछा नहीं क्यों रो रहे हैं? भुंगी नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं पूछा। झूठ क्यों बोलूँ?

वह रो रहे हैं। इस निस्तब्ध रात्रि में अकेले बैठे हुए वह रो रहे हैं। माता की याद आई होगी? कैसे जाकर उन्हें समझाऊँ? हाय, कैसे समझाऊँ? यहाँ तो छींकते नाक कटती है। ईश्वर तुम साक्षी हो, अगर मैंने उन्हें भूल से भी कुछ कहा हो तो वह मेरे आगे आए। मैं क्या करूँ? वह दिल में समझते होंगे कि इसी ने पिताजी से मेरी शिकायत की होगी। कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैंने कभी तुम्हारे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला? अगर मैं ऐसे देवकुमार के से चरित्र रखनेवाले युवक का बुरा चेतूं, तो मुझसे बढ़कर राक्षसी संसार में न होगी।

निर्मला देखती थी कि मंसाराम का स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता जाता है, वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, उसके मुख की निर्मल कांति दिन-दिन मलिन होती जाती है, उसका सहास वदन संकुचित होता जाता है। इसका कारण भी उससे छिपा न था, पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ न कह सकती थी। यह सब देख-देखकर उसका हृदय विदीर्ण होता रहता था, पर उसकी जबान न खुल सकती थी। वह कभी-कभी मन में झुंझलाती कि मंसाराम क्यों जरा सी बात पर इतना क्षोभ करता है? क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया? मेरी और बात है, एक जरा सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है, पर उसे ऐसी बातों की इतनी क्या परवाह?

उसके जी में प्रबल इच्छा हुई कि चलकर उन्हें चुप कराऊँ और लाकर खाना खिला दूँ। बेचारे रात भर भूखे पड़े रहेंगे। हाय। मैं इस उपद्रव की जड़ हूँ। मेरे आने से पहले इस घर में शांति का राज्य था। पिता बालकों पर जान देता था, बालक पिता को प्यार करते थे। मेरे आते ही सारी बाधाएँ आ खड़ी हुईं। इनका अंत क्या होगा? भगवान् ही जाने। भगवान् मुझे मौत भी नहीं देते। बेचारा अकेले भूखों पड़ा है। उस वक्त भी मुँह जूठा करके उठ गया था और उसका आहार ही क्या है, जितना वह खाता है, उतना तो साल-दो-साल के बच्चे खा जाते हैं।

निर्मला चली। पति की इच्छा के विरुद्ध चली। जो नाते में उसका पुत्र होता था, उसी को मनाने जाते उसका हृदय काँप रहा था। उसने पहले रुक्मिणी के कमरे की ओर देखा, वह भोजन करके बेखबर सो रही थीं, फिर बाहर