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रूपवान, दयालु, ऐसे सुशील प्राणी का यह अंत! अगर निर्मला को मालूम होता कि उसके क्रोध का यह भीषण परिणाम होगा तो वह जहर का चूंट पीकर भी उस बात को हँसी में उड़ा देती।

यह सोचकर कि मेरी ही निष्ठुरता के कारण डॉक्टर साहब का यह हाल हुआ। निर्मला के हृदय के टुकड़े होने लगे। ऐसी वेदना होने लगी, मानो हृदय में शूल उठ रहा हो। वह डॉक्टर साहब के घर चली।

लाश उठ चुकी थी। बाहर सन्नाटा छाया हुआ था। घर में स्त्रियाँ जमा थीं। सुधा जमीन पर बैठी रो रही थी। निर्मला को देखते ही वह जोर से चिल्लाकर रो पड़ी और आकर उसकी छाती से लिपट गई। दोनों देर तक रोती रहीं।

जब औरतों की भीड़ कम हुई और एकांत हो गया, निर्मला ने पूछा-यह क्या हो गया बहन, तुमने क्या कह दिया?

सुधा अपने मन को इसी प्रश्न का उत्तर कितनी ही बार दे चुकी थी। उसका मन जिस उत्तर से शांत हो गया था, वही उत्तर उसने निर्मला को दिया। बोली—चुप भी तो न रह सकती थी बहन, क्रोध की बात पर क्रोध आता ही है।

निर्मला—मैंने तो तुमसे कोई ऐसी बात भी न कही थी।

सुधा-तुम कैसे कहतीं, कह ही नहीं सकती थीं, लेकिन उन्होंने जो बात हुई थी, वह कह दी थी। उस पर मैंने जो कुछ मुँह में आया, कहा। जब एक बात दिल में आ गई तो उसे हुआ ही समझना चाहिए। अवसर और घात मिले तो वह अवश्य ही पूरी हो। यह कहकर कोई नहीं निकल सकता कि मैंने तो हँसी की थी। एकांत में ऐसा शब्द जबान पर लाना ही कह देता है कि नीयत बुरी थी। मैंने तुमसे कभी कहा नहीं बहन, लेकिन मैंने उन्हें कई बार तुम्हारी ओर झाँकते देखा। उस वक्त मैंने भी यही समझा कि शायद मुझे धोखा हो रहा हो। अब मालूम हुआ कि उसके ताक-झाँक का क्या मतलब था! अगर मैंने दुनिया ज्यादा देखी होती तो तुम्हें अपने घर न आने देती। कम-सेकम तुम पर उनकी निगाह कभी न पड़ने देती, लेकिन यह क्या जानती थी कि पुरुषों के मुँह में कुछ और मन में कुछ और होता है। ईश्वर को जो मंजूर था, वह हुआ। ऐसे सौभाग्य से मैं वैधव्य को बुरा नहीं समझती। दरिद्र प्राणी उस धनी से कहीं सुखी है, जिसे उसका धन साँप बनकर काटने दौड़े। उपवास कर लेना आसान है, विषैला भोजन करना उससे कहीं मुश्किल।

इसी वक्त डॉक्टर सिन्हा के छोटे भाई और कृष्णा ने घर में प्रवेश किया। घर में कोहराम मच गया।


26.

एक महीना और गुजर गया। सुधा अपने देवर के साथ तीसरे ही दिन चली गई। अब निर्मला अकेली थी। पहले हँस-बोलकर जी बहला लिया करती थी। अब रोना ही एक काम रह गया। उसका स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता गया। पुराने मकान का किराया अधिक था। दूसरा मकान थोड़े किराए का लिया, यह तंग गली में था। अंदर एक कमरा था और छोटा सा आँगन। न प्रकाश जाता, न वायु। दुर्गंध उड़ा करती थी। भोजन का यह हाल कि पैसे रहते हुए भी कभी-कभी उपवास करना पड़ता था। बाजार से लाए कौन? फिर अपना कोई मर्द नहीं, कोई लड़का नहीं तो रोज भोजन बनाने का कष्ट कौन उठाए? औरतों के लिए रोज भोजन करने की आवश्यकता ही क्या? अगर एक वक्त खा लिया तो दो दिन के लिए छुट्टी हो गई। बच्ची के लिए ताजा हलुआ या रोटियाँ बन जाती थीं! ऐसी दशा में स्वास्थ्य क्यों न बिगड़ता? चिंता, शोक, दुरावस्था, एक हो तो कोई कहे। यहाँ तो त्रयताप का धावा था। उस पर निर्मला ने दवा खाने की कसम खा ली थी। करती ही क्या? उन थोड़े-से रुपयों में दवा की गुंजाइश कहाँ थी? जहाँ