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सातवां परिच्छेद
 

कैद न कीजिए, खुली हवा में चरित्र के भ्रष्ट होने की उससे कहीं कम सम्भावना है, जितनी बन्द कमरे में। कुसङ्गत से जरूर बचाइए, मगर यह नहीं कि उसे घर से निकलने ही न दीजिए। युवावस्था में एकान्त वास चरित्र के लिए बहुत ही हानिकर है। मुन्शी जी को अब अपनी गलती मालूम हुई। घर लौट कर मन्साराम के पास गए। यह अभी स्कूल से आया था और बिना कपड़े उतारे एक किताब सामने खोल कर, सामने खिड़की की ओर ताक रहा था। उसकी दृष्टिं एक भिखारिन पर लगी हुई थी, जो अपने बालक को गोद में लिए भिक्षा माँग रही थी। बालक माता की गोद में बैठा हुआ ऐसा प्रसन्न था, मानो वह किसी राज-सिंहासन पर बैठा हो।' मन्साराम उस बालक को देख कर रो पड़ा। यह बालक क्या मुझसे अधिक सुखी नहीं है? इस अनन्त विश्व में ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे वह इस गोद के बदले में पाकर प्रसन्न हो? ईश्वरभी ऐसी वस्तु को सृष्टि नहीं कर सकते। ईश्वर! ऐसे बालकों को जन्म ही क्यों देते हो, जिसके भाग्य में मात्र वियोग का दुख भोगना बदाहो! आज मुझ सा अभागा संसार में और कौन है? किसे मेरे खानेपीने को, मरने-जीने की सुव है। अगर आज मर भी जाऊँ, तो किसके दिल को चोट लगेगी! पिता को अब मुझे रुलाने में मजा आता है, वह मेरी सूरत भी नहीं देखना चाहते, मुझे घर से निकाल देने की तैयारियाँ हो रही हैं। आह माता! तुम्हारा यह लाडला वेटा आज आवारा कहा जा रहा है। वही पिता जी, जिनके हाथों में तुमने हम तीनों भाइयों के हाथ पकड़ाये थे, आज