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सातवां परिच्छेद
 

बोली-दुबला क्यों होगा, अब तो बहुत अच्छी तरह लालन-पालन हो रहा है। मैं गँवारिन थी, लड़कों को खिलाना-पिलाना नहीं जानती थी। खोंमचा खिला-खिला कर इनकी आदत बिगाड़े देती थी। अब तो एक पढ़ी-लिखी, गृहस्थी के कामों में चतुर औरत पान की तरह फेर रही है न! दुबला हो उसका दुश्मन!!

मुन्शी जी-दीदी, तुम बड़ा अन्याय करती हो। तुमसे किसने कहा कि लड़कों को विगाड़ रही हो। जो काम दूसरों के किए न हो सके, वह तुम्हें खुद करना चाहिए। यह नहीं कि घर से कोई नाता ही न रक्खो। जो अभी खुद लड़की है, वह लड़कों की देख-रेख क्या करेगी? यह तुम्हारा काम है।

रुक्मिणी-जब तक अपना समझती थी, करती थी। जब तुमने गैर समझ लिया, तो मुझे क्या पड़ी है कि तुम्हारे गले से चिमहूँ? पूछो, कै दिन से दूध नहीं पिया? जाके कमरे में देख आओ, नाश्ते के लिए जो मिठाई भेजी गई थी, वह पड़ी सड़ रही है। मालकिन समझती हैं, मैं ने तो खाने को सामने रख दिया, कोई न खाय तो क्या मुँह में डाल दूँ। तो भैया इस तरह वह लड़के पलते होंगे? जिन्होंने कभी लाड़-प्यार का सुख नहीं देखा। तुम्हारे लड़के बरावर पान की तरह फेरे जाते रहे हैं, अव अनाथों की तरह रह कर सुखी नहीं रह सकते। मैं तो बात साफ कहती हूँ। बुरा मान कर ही कोई मेरा क्या कर लेगा? उस पर सुनती हूँ कि लड़के को स्कूल में रखने का प्रबन्ध कर रहे हो! बेचारे को घर में आने तक