इसलिए यदि कोई जगह खाली भी हुई,तो भी मन्साराम को जगह न मिल सकेगी;क्योंकि कितने ही बाहरी लड़कों के प्रार्थना-पत्र रक्खे हुए थे। मुन्शी जी वकील थे।रात-दिन ऐसे प्राणियों से साविका रहता था,जो लोभ-वश असम्भव को भी सम्भव,असाध्य को भी साध्य बना सकते हैं। समझे शायद कुछ दे-दिला कर काम निकल जाय।दफ्तर के लार्क से ढङ्ग की कुछ बातचीत करनी चाहिए;पर उसने हँस कर कहामुन्शी जो,यह कचहरी नहीं,स्कूल है; हेडमास्टर साहब के कानों में इसकी भनक भी पड़ गई, तो जामे से बाहर हो जाएँगे;और मन्साराम को खड़े-खड़े निकाल देंगे। सम्मव है,अफसरों से शिकायत करदें।वेचारे मुन्शी जी अपना सा मुँह लेकर रह गए।दस वजते-बजते झुंझलाए हुए घर लौटे। मन्साराम उसी वक्त घर से स्कूल जाने को निकला।मुन्शी जी ने उसे कठोर नेत्रों से देखा,मानो वह उनका शत्रु हो;और घर में चले गए।
इसके बाद दस-बारह दिनों तक वकील साहब का यही नियम रहा कि कभी सुबह,कभी शाम किसी न किसी स्कूल में हेडमास्टर से मिलते;और मन्साराम को वोर्डिङ्ग हाउस में दाखिल कराने की चेष्टा करते;पर किसी स्कूल में जगह न थी।सभी जगहों से कोरा जवाब मिल गया। अब दो ही उपाय थे-या तो मन्साराम को अलग किराए के मकान में रख दिया जाय या किसी दूसरे शहर के स्कूल में भरती करा दिया जाय। यह दोनों ही बातें आसान थीं। मुफस्सिल के स्कूलों में जगहें अक्सर खाली रहती