यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
८२
 

सन्साराम ने उत्तेजित होकर कहा―किन महाशय ने आप से यह शिकायत की है,जरा मैं भी तो सुनूँ।

वकील―कोई हो,इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं।तुन्हें इतना विश्वास होना चाहिए कि मैं झूठा आक्षेप नहीं करता।

मन्साराम―अगर मेरे सामने कोई आकर कह दे कि मैं ने इन्हें कहीं घूमते देखा है,तो मुँह न दिखाऊँ।

वकील―किसी को ऐसी क्या गरज पड़ी है कि तुम्हारे मुँँह पर तुम्हारी शिकायत करे; और तुमसे वैर मोल ले? तुम अपने दो-चार साधियों को लेकर उसके घर के खपरैल फोड़ते फिरो। मुझसे इस किस्म की शिकायत एक आदमी ने नहीं, कई आदमियों ने की है; और कोई वजह नहीं है कि मैं अपने दोस्तों की बात का विश्वास न करूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम स्कूल ही में रहा करो।

मन्साराम ने मुँह गिरा कर कहा―मुझे वहाँ रहने में कोई आपत्ति नहीं है, जब से कहिए चला जाऊँँ।

वकील―तुमने मुँह क्यों लटका लिया, क्या वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? ऐसा मालूम होता है, मानो वहाँ जाने के भय से तुम्हारी नानी मरी जा रही है। आखिर बात क्या है, वहाँ तुम्हें क्या तकलीफ़ होगी?

मन्साराम छात्रालय में रहने के लिए उत्सुक नहीं था; लेकिन जब मुन्शी जी ने यही बात कह दी; और इसका कारण पूछा, तो वह अपनी झेप मिटाने के लिए प्रसन्नचित होकर बोला―मुँह क्यों लटकाऊँ? मेरे लिए जैसे घर, वेसे वोर्डिङ्ग हाउस। तकलीफ़