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सातवां परिच्छेद
 

निर्मला जाकर ग्लास में पानी लाई;और एक तश्तरी में कुछ मेवे रख कर मन्साराम को दिए।मन्साराम खाकर चलने लगा,तो निर्मला ने पूछा-कब तक आओगे?

मन्साराम-कह नहीं सकता।गोरों के साथ हॉकी है। वारक यहाँ से बहुत दूर है।

निर्मला-भई,जल्द आना। खाना ठण्ढा हो जायगा,तो कहोगे मुझे भूख नहीं है।

मन्साराम ने निर्मला की और सरल स्नेह-भाव से देख कर कहा-मुझे देर हो जाय तो समझ लीजिएगा वहीं खा रहा है। मेरे लिए बैठने की ज़रूरत नहीं।

वह चला गया तो निर्मला बोली-पहले तो घर में आते ही न थे, मुझसे बोलते शरमाते थे। किसी चीज़ की जरूरत होती,तो बाहर ही से मँगवा भेजते। जब से मैंने बुला कर कहा, तब से अव आने लगे हैं।

तोताराम ने कुछ चिढ़ कर कहा-यह तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें माँगने क्यों आता है? दीदी से क्यों नहीं कहता?

निर्मला ने यह वात प्रशंसा पाने के लोभ से कही थी। वह यह दिखाना चाहती थी कि मैं तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूँ। यह कोई वनावटी प्रेम न था। उसे लड़कों से सचमुच स्नेह था। उसके चरित्र में अभी तक बाल-भाव ही प्रधान था उसमें वही उत्सुकता,वहीआशावादिता,वही चञ्चलता,वही विनोदप्रियता विद्यमान थी और वालकों के साथ उसकी ये वालवृत्तियाँ