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छठा परिच्छेद
 

खिला-खिला कर मारता हूँ। कितनों ही की तो मुट्ठी से पकड़ कर मसल दिया है।

रुक्मिणी ने कहा-जाओ भी,देख ली तुम्हारी मर्दानगी! मुन्शी जी झेप कर वोले-अच्छा जाओ,मैं डरपोक ही सही;तुमसे कुछ इनाम तो नहीं मॉग रहा हूँ। जाकर महराज से कहो खाना निकाले।

मुन्शी जी तो भोजन करने गए और निर्मला द्वार की चौखट पर खड़ी सोच रही थी-भगवन्!क्या इन्हें सचमुच कोई भीपण रोग हो रहा है? क्या मेरी दशा को और भी दारुण बनाना चाहते हो? मैं इनकी सेवा कर सकती हूँ;सम्मान कर सकती हूँ,अपना जीवन इनके चरणों पर अर्पण कर सकती हूँ;लेकिन वह नहीं कर सकती,जो मेरे किए नहीं हो सकता। अवस्था का भेद मिटाना मेरे वश की बात नहीं! आखिर यह मुझसे क्या चाहते हैं-समझ गई! समझ गई!! आह यह बात पहले ही नहीं समझी थी, नहीं तो इनको क्यों इतनी तपस्या करनी पड़ती, क्यों इतने स्वाँग भरने पड़ते?