सन्ध्या का समय था, निर्मला छत पर जाकर अकेली बैठी आकाश की ओर तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता था कि पङ्ख होते तो वह उड़ जाती; और इन सारी झन्झटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहिनें कहीं सैर करने जाया करती थीं। बग्घी खाली न होती, तो बगीचे ही में टहला करतीं। इसलिए कृष्णा. उसे खोजती फिरती थी। जब कहीं न पाया, तो छत पर आई; और उसे देखते ही हँस कर बोली-तुम यहाँ आकर छिपी बैठी हो; और मैं तुम्हें ढूँढ़ती फिरती हूँ। चलो, बग्घी तैयार करा आई हूँ!
निर्मला ने उदासीन भाव से कहा--तू जा, मैं न जाऊँगी।
कृष्णा--नहीं, मेरी अच्छी दीदी; आज ज़रूर चलो। देखो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है।
निर्मला--मेरा मन नहीं चाहता, तू चली जा।
कृष्णा की आँखें डबडबा आई। काँपती हुई आवाज़ से बोली--आज तुम क्यों नहीं चलती? मुझसे क्यों नहीं बोलती? क्यों इधर-उधर छिपी-छिपी फिरती हो? मेरा जी अकेले बैठे-बैठे घबराता है। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊँगी। यहीं तुम्हारे साथ बैठी रहूँगी।
निर्मला--और जब मैं चली जाऊँगी, तब क्या करेगी? तब किसके साथ खेलेगी, किसके साथ घूमने जायगी; बता?
कृष्णा--मैं भी तुम्हारे साथ चलँगी। अकेले मुझसे यहाँ न रहा जायगा।