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निर्मला
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करते हैं। इसके सिवा जो मेरे मुँह से कुछ और निकला हो, तो मेरी आँखें फूट जाएँ।

तोताo-मैं खुद इन लौडों की शरारत देखा करता हूँ,अन्धा थोड़े ही हूँ। तीनों जिद्दी और शरीर हो गए हैं। बड़े मियाँ को तो मैं आज ही होस्टल में भेजता हूँ।

रुक्मिणी-अब तक तो तुम्हें इनकी कोई शरारत न सूझती थी, आज आँखें क्यों इतनी तेज़ हो गई?

तोताराम-तुम्हीं ने इन्हें इतना शोख कर रक्खा है।

रुक्मिणी-तो मैं ही विष की गाँठ हूँ। मेरे ही कारन तुम्हारा घर चौपट हो रहा है। लो, मैं जाती हूँ। तुम्हारे लड़के हैं; मारो चाहे काटो, मैं न बोलूंगी।

यह कह कर वहाँ से चली गई। निर्मला बच्चे को रोते देख कर विह्वल हो उठी। उसने उसे छाती से लगा लिया, और गोद में लिए हुए अपने कमरे में लाकर उसे चुसकारने लगी, लेकिन बालक और भी सिसक-सिसक कर रोने लगा। उसका अबोध हृदय इस प्यार में वह मातृ-स्नेह न पाता था,जिससे देव ने उसे वञ्चित कर दिया था। यह वात्सल्य न था,केवल दया थी। यह वह वस्तु थी, जिस पर उसका कोई अधिकार न था,जो केवल भिक्षा के रूप में उसे दी जा रही थी, पिता ने पहले भी दो-एक बार मारा था, जब उसकी माँ जीवित थी। लेकिन तब उसकी माँ उसे छाती से लगा कर रोती न थी। वह अप्रसन्न होकर उससे बोलना छोड़ देती, यहाँ तक कि वह स्वयं थोड़ी ही देर के बाद