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निर्मला
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खूब वातें करती। इन्हीं बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्योंही कोई विनोद की बात उनके निकल जाती, उसका मुख मलिन हो जाता था!

निर्मला जब वस्त्राभूषणों से अलङ्कत होकर आईने के सामने खड़ी होती; और उसमें अपने सौन्दर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था।उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला सी उठती। मन में आता इस घर में आग लगा दूँ। अपनी माता पर क्रोध आता, पिता पर क्रोध आता, अपने भाग्य पर क्रोध आता; पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता,वह सदैव इस ताप से जला करती थी। वाँका सवार बूढ़े लद्द, टट्ट पर सवार होना कव पसन्द करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े। निर्मला की दशा उसी बाँके सवार की थी। वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी विद्युत-गति का आनन्द उठाना चाहती थी, टटू के हिनहिनाने और कनौतियाँ खड़ी करने से क्या आशा होती?सम्भव था कि बच्चों के साथ हँसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता; लेकिन रुक्मिणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने भी न देतीं, मानो वह कोई पिशाचिनी है, जो उन्हें निगल जायगी। रुक्णिमी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था; यह पता लगाना कठिन था कि वह किस बात से खुश होती थीं; और किस बात से नाराज!एक बार जिस बात से खुश हो जाती थीं, दूसरी: